मरीचिका
बचपन से ही
शौक है मुझे महल बनाने का
लेकिन मेरे पास है सिर्फ बालू
तेज़ हवा या बारिश होने का डर नहीं
भ्रम में डालने के लिए मरीचिका ही
है काफी क्योंकि उठा लाया मैं
बालू ही बालू , अजीब है यह किस्सा
मेरे स्वप्न तो साकार हो चुके थे
फिर ऐसा भ्रम क्यों?
आँसू जलते हुए जिस्म के ऊपर गिर
छाले डालते हैं
यह जिस्म ठंडा पड़ जाता
पहलू से खिसकती जिंदगी लेता बटोर
नहीं जुड़ सकते जो शब्द उन से कैसे
लिख पाता यह कविता?
राजेश मेहरा
